Monday, 7 March 2016

हज़रत निजाम्मुद्दीन औलिया जी ka एक शिष्य था

हज़रत निजाम्मुद्दीन औलिया जी ka एक शिष्य था ,
शिष्य बेहद धनवान था . पैसा तथा जमीन जायदाद की कोई कमी न थी . वह धनवान व्यापारी था जो कि यहाँ से सस्ता सामान ऊन्ठों पर लाद कर अफ़ग़ानिस्तान तथा उससे भी आगे के देशों में ले जाकर बेचता तथा वहां से मिलने वाला सस्ता सामान यहाँ लाकर बेचता , यानि कि उसका आयात -निर्यात का कारोबार था ।
एक दिन की बात है कि औलिया साहिब का एक शिष्य उनके पास . वह शिष्य बेहद गरीबी से जूझ रहा था . उसकी बेटी की शादी तय हो चुकी थी पर शादी पर खर्च करने लायक पैसों का इंतजाम न हो पाया था . औलिया साहिब के पास बहुत उम्मीद लेकर पहुंचा था वहशिष्य । उसने आकर मदद के लिए फ़रियाद की . औलिया साहेब के पास उन दिनों तंगहाली चल रही थी . वह बड़ी मुश्किल से अपने लिए खाने इत्यादि का इंतजाम कर पा रहे थे . औलिया साहिब ने उसे कुछ रुकने की सलाह दी , क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि कहीं न कहीं से इंतजाम हो ही जायेगा . उनके पास कई शिष्य आते थे जो कि उनकी सेवा में कोई न कोई भेंट दिया करते थे . इसी उम्मीद पर ही उन्हों ने शिष्य को रुकने की सलाह दी पर होना तो कुछ और ही था . जब शादी को कुछ ही दिन रह गए तब शिष्य ने वापिस जाने की आज्ञा मांगी . शिष्य बहुत दुखी था क्योंकि उसने देखा कि औलिया साहिब बहुत मश्किल में अपने लिए ही इंतजाम कर पा रहे थे . औलिया साहिब भी बहुत परेशान थे , क्योंकि चाहते हुए भी उस शिष्य की मदद न कर पा रहे थे . शिष्य द्वारा जाने की आज्ञा मांगने पर वह उसे और रुकने को भी नहीं कह पा रहे थे क्योंकि शादी को कुछ ही दिन शेष थे .
शिष्य वापिस चलने को तैयार हो गया तो औलिया साहिब ने उससे मदद न कर पाने के लिए माफ़ी मांगी तथा कहा ," मेरे पास तुझे देने को कुछ भी नहीं है , पर तू खाली हाथ न जा , तू बहुत उम्मीद लेकर मुर्शिद के दरवाज़े पर आया है . इस वक़्त मेरे पास मेरे ये जूते ही हैं , तू इसी को ले जा , खुदा तेरा मददगार होगा ." औलिया साहिब ने वे जूते उतार कर शिष्य के हाथ में दे दिए . जूते जगह जगह से कटे फटे थे , जो कि पहनने लायक भी न थे . शिष्य ने जूते लेकर बड़े बे मन से अपने थैले में रख लिए और चल दिया अपने गावं की और .
शिष्य को चलते चलते एक दो दिन ही हुए होंगे अभी उसका गावं दूर था
दूसरी तरफ औलिया साहिब का धनवान शिष्य इक्कीस उन्ठों पर काजू, बादाम , मेवे इत्यादि लाद कर अफगानिस्तान से आ रहा था . उसे हल्की हल्की खुशबूसी महसूस हो रही थी . उसका ध्यान खुशबूकी तरफ आकृष्ट हो रहा था . उसने खुशबू को पहचानने की कोशिश की तो उसे महसूस हुआ , "कि खुशबू तो मेरे मुर्शिद की ही लग रही है ." जैसे जैसे उसका काफिला आगे - आगे बढ़ रहा था खुशबू भी   बढती जा रही थी . उसके मन में मस्ती छाने लगी . अपने मुर्शिद [गुरु ]के प्रति प्रेम जाग उठा और उसका मन मयूर की तरह नाचने लग गया . अश्रुधारा बह उठी . वह गरीब शिष्य जो की औलिया साहिब के दर से आ रहा था वह उसी काफिले के पास से गुज़र रहा था वह थोडा आगे बढ़ा तो धनवान शिष्य ने महसूस किया कि खुशबू घटने लग रही है . वह समझ गया कि यह जो फटेहाल पास से गुज़रा है , यह खुशबु वहीँ से आ रही है . उसने काफिला रुकवा लिया और भागता हुआ उसी फटेहाल गरीब व्यक़्ति के पास पहुँच गया . अब वहां ऐसा लगने लगा जैसे खुशबू का सैलाब ही आ गया हो उस धनवान की आँखों से अश्रुधारा बह रही थी . मुर्शिद के प्रति प्रेम का अथाह सागर हिलोर उठा उसने दोनों हाथ जोड़ कर उस फटेहाल व्यक़्ति से पूछा , " आप कहाँ से आ रहे हो ? "
" मैं अपने मुर्शिद के दर से आ रहा हूँ ".
" मुर्शिद " शब्द सुनते ही वह धनवान आनंद से झूम और पूछा , " कौन हैं आपके मुर्शिद ? "
उसने जवाब दिया , " औलिया साहिब हैं , उनका नाम है निजाम्मुद्दीन साहिब है ".
अब क्या था , उस धनवान व्यापारी को अपना गुरु भाई मिला और वह प्रसन्ता से उठा .व्यापारी ने उसे अपने गले से लगा लिया और वहां का हाल जानने को कई सवाल किये . . उस शिष्य से यह जानकर कि मुर्शिद तो बहुत ही तंगहाली से दिन काट रहे हैं , वह बहुत दुखी हुआ . उसे अपने पर बहुत लाज आयी , मन ने कहा , " धिक्कार है मुझ पर कि मैं तो मजे से हूँ और मेरा मुर्शिद ---------"मेरा मुर्शिद मेरे इस गरीब गुरु भाई की मदद भी न कर सके . उसकी रूह काँप उठी उसने अपने गरीब गुरु भाई से पूछा ," क्या ये जूते आप मुझे देंगे " ? अब वह गरीब गुरु भाई सोचने लगा कि ," मेरे तो किसी काम के नहीं , न ये पहनने लायक और न ही ये बिकने वाले , इसी को दे देता हूँ " यह सोचकर उसने जूते अमीर के हवाले कर दिए . जूते पाकर वह धनवान व्यापारी नाचने लग गया . उसने जूते अपने सर पर रखे , कई बार उन्हें चूमा और अपने उस गरीब गुरु भाई से कहा ," मैं तो आपका यह क़र्ज़ कभी उतार ही न पाऊंगा , मैं अपनी सारी दौलत भी अगर इन जूतों के बदले में दे दूं तो भी आपका क़र्ज़ मुझसे न उतर पायेगा . इस वक़्त मेरे पास इक्कीस उन्ठों पर बादाम मेवे इत्यादि लदे हैं . इनमे से मैं आपको बीस ऊंट दे रहा , आप इन्हें कबूल करें " .और उस धनवान ने लाखों के सामान सहित बीस ऊँट अपने गरीब गुरु भाई के हवाले कर दिए ,
अब एक ऊँट सामान सहित लेकर तथा मुर्शिद के जूते अपने सर पर रखे वह गुरु के गुण गाता हुआ वह अपने गुरु हज़रत निजाम्मुद्दीन औलिया साहिब जी के पास पहुँच गया . एक ऊंट सामान सहित गुरु को भेंट किया तथा उनके जूते उनके सामने रख दिए ।
मुर्शिद के पूछने पर उस धनवान शिष्य ने रास्ते में गुजरी पूरी दास्तान सुना दी . पूरी बात सुन कर औलिया साहिब ने कहा " यह जूते तो तूने बहुत सस्ते में ले लिए हैं ,तू दौलत से तो अमीर है ही तू दिल से भी अमीर है , चल आ बैठ मेरे सामने , आज मैं तेरे को आत्मा से भी अमीर बना दूं , आज मैं तुझे वह दौलत देता हूँ जो कभी ख़त्म ही न होगी . बांटे जाना इस दौलत को , जैसे जैसे बांटेगा ,यह दौलत बढती ही जाएगी . उन्होंने उस शिष्य को अपने सामने बैठाया और परमात्मा के घर की दौलत से मालामाल कर दिया ।
" तू आज असली अमीर हुआ है , दुनिया की सारी अमीरी यहीं रह जाएगी पर जो अमीरी मैंने तुझे दी है यह तेरे साथ ही जाएगी अब तुझ में और मुझमे कोई फर्क नहीं रहा अब हम दोनों एक ही हैं . पहला जो तेरा नाम ,इस शरीर को मिला वह तेरे माता पिता ने दिया था . मैं आज तुझे नया नाम दे रहा हूँ ,दुनिया में तू इसी नाम से याद किया जायेगा . और जो नाम औलिया साहिब ने उसे दिया , वह शिष्य आज तक उसी नाम से जाना जाता है और वह नाम आज तक लोगों की जुबान पर है .
अमीर खुसरो नाम दिया गया मुर्शिद के द्वारा...!

No comments:

Post a Comment